वोल्फ स्च्रन्क्ल की एक कविता
(अनुवाद: अनुपमा पाठक)
मैं जीता हूँ
हमेशा एक यात्रा पर गायब रहने के लिए
सुबहें कभी भी एक ही स्थान पर
मुझे हर रोज़ अचंभित नहीं कर सकती
मैं ऐसा किसी विशेष कारण
के तहत नहीं करता
हो सकता है मैं जन्मा ही होऊं
यात्री के जूतों के साथ
या शायद हूँ
थोड़ा सा पागल
या फिर केवल इतना ही कि चाहता हूँ
कॉफ़ी से
सदा अलग अलग सुगंध आती रहे.
Resenärens skäl
Jag lever
För att vara borta
Morgonen överraskar mig aldrig
På samma plats.
Jag gör det
För inget speciellt skäl
Det kan vara att jag
är född med vandrarskor
eller bara har blivit
lite tokig
eller helt enkelt vill,
att kafet
alltid luktar annorlunda.
-Wolf Schrankl
बकौल स्वर्गीय भूपेन हज़ारिका,
ReplyDelete’आमि एक जाजाबौर.....’
फकीरी
ReplyDeleteहो सकता है मैं जन्मा ही होऊं
ReplyDeleteयात्री के जूतों के साथ
या शायद हूँ
थोड़ा सा पागल
बहुत अच्छी कविता...
सुन्दर कविता ... अनुपमा जी यह ब्लॉग नया है..शुभकामना
ReplyDeleteकितनी प्यारी कविता है अनुपमा,
ReplyDeleteगुलज़ार साहब की पंक्तियाँ याद आ गयीं, "रोज़ ए अव्वल ही से आवारा हूँ, आवारा रहूँगा."
बेहतरीन अनुवाद !!